बाल विकास की विशेषता :
सामान्य से विशिष्ट की ओर: बालक का विकास सामान्य परिस्थिति से होता है ! बाद में धीरे-धीरे यह विकास विशिष्ट की ओर होता है ! शुरू में बालक पुरे हाथ का सञ्चालन करता है ! धीरे-धीरे वो अपने उंगलियों पर भी नियंत्रण पा लेटरे है !
मस्तकोधमुखी सिद्धांत (Cephalocandal): इस मत के अनुसार विकास की क्रिया का आरम्भ सिर से होता है! भ्रूणअवस्था में पहले सिर का विकास होता है उसके बाद धड़ एवं टांगो का !
निकट – दूर सिद्धांत (Proximodigital) : इस मत के अनुसार विकास का केंद्र बिंदु स्नायुमंडल होता है और पहले स्नायुमंडल का विकास होता है , इसके पाश्चत्य स्नायुमंडल के निकट वाले भागो का विकास होता है जैसे – ह्रदय, छाती, कुहनी आदि !
संगठित प्रक्रिया (Unified Process) : इसके अनुसार विकास की प्रक्रिया केवल शारीरिक विकास से नही है !शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक, संवेगात्मक सामाजिक विकास भी होने से व्यक्तित्व में पूर्णता आती है !यदि कोई बालक शारीरिक दृष्टि से 8 वर्ष का है तो वह मानसिक दृष्टी से 12 वर्ष का हो सकता है !
भिन्नता का सिद्धांत (Variation) : विकास की गति समान नही होती यह जीवनभर चलती रहती है ! परन्तु इसके स्वरुप भिन्न-भिन्न होते हैं विकास की गति शैशव में तीव्र होती है बाल्यकाल में धीमी और किशोरवस्था में तीव्र होती हुई पूर्णता प्राप्त करती है!
सतत प्रक्रिया : विकास की गर्भाधान से मृत्यु तक चलती रहती है ! इस प्रक्रिया से सभी को गुजरना पड़ता है ! व्यवहार और परिवर्तन से सभी को गुजरना पड़ता है !
विकास प्रक्रिया के समान प्रारूप (Uniform Pattern) : समान प्रजाति में विकास की गति के समान प्रारूपों से प्रवाहित होती है ! मनुष्य चाहे अमेरिका में जन्म लिया हो या भारत में , उसका शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, भाषा आदि का विकास अन्य व्यक्तियों के समान होता है !